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आइने में खरोचें न दो इस क़दर / डी. एम. मिश्र
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आइने में खरोचें न दो इस क़दर
ख़ुद को अपना कयाफा़ न आये नज़र।
रेत पर मत किसी की वफ़ा को लिखेा
आसमाँ तक कहीं उड़ न जाये ख़बर।
तुम अभी तक वहीं के वहीं हो खड़े
झील तक आ गया ज़लज़ले का असर।
रात कितनी ही लंबी भले क्यों न हो
देखना रात के बाद होगी सहर।
शख़़्सियत का मिटाने चले हो निशाँ
ढूँढते हो मगर आदमी की मुहर।
फूल तोड़े गये टहनियाँ चुप रहीं
पेड़ काटा गया बस इसी बात पर।