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आई चलि काल्हि ही तू मायके तेँ एरी अलि / अज्ञात कवि (रीतिकाल)

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आई चलि काल्हि ही तू मायके तेँ एरी अलि ,
कौन बिधि कैसे मिलि प्रेम जाल नाख्यो तू ।
मेरे जान ईश प्यारो रूप की मयूख सीँच ,
बचन पियूख केधौँ मृदु हंसी भाख्यो तू ।
कीनो शुभचार केधौँ और ही बिचार सुनो ,
तू ही निरधार चार सुख अभिलाख्यो तू ।
एरी अरविँद नैनी पिक बैनी भोर ही ते ,
गोकुल के चंद को चकोर करि राख्यो तू ।


रीतिकाल के किन्हीं अज्ञात कवि का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।