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आओ चलें परियों के गाँव में / लक्ष्मीकान्त मुकुल

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आओ चलें परियों के गाँव में,
नदिया पर पेड़ों की छाँव में
सूखी ही पनघट की आस है
मन में दहकता पलास है
बेड़ी भी कांपती औ’ ज़िन्दगी
सिमटी लग रही आज पांव में

अनबोले जंगल बबूल के
अरहर के खेतों में भूल के
खोजें हम चित्रा की पुरवाई
बरखा को ढूँढते अलाव में

बगिया में कोयल का कूकना
आँगन में रचती है अल्पना
झुटपुटे में डूबता सीवान वो
रिश्ते अब जलते अब आंव में

डोल रही बांसों की पत्तियां
आँखों में उड़ती हैं तीलियाँ
लोग बाग़ गूंगे हो गए आज
टूटते रहे हैं बिखराव में