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आओ शाश्वत / सुनो तथागत / कुमार रवींद्र

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आओ शाश्वत ! चलें जंगल में
 
वहाँ पगडंडी पुरानी
आज भी है
उसी पर हम-तुम चलेंगे
मित्र-वृक्षों ने
भरी जो साँस सदियों
वही हम-तुम भी भरेंगे
 
औ' नहायेंगे नदी के शांत जल में
 
वहीं है आदिम गुफा
जिससे निकलते
रात-होते परी-बौने
चकित फिरते हैं
वहीँ पर दोपहर भर
हिरण-छौने
 
अक्स देखेंगे उन्हीं के झील -तल में
 
चाँद-सूरज
वहाँ पर हमको मिलेंगे
साफ-सच्चे
और शाश्वत
वहीँ रहते हैं वनैले
भील-बच्चे
 
खोजते जो रात-भर भौंरे कँवल में