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आकाशी पाखी मैं, बंदी अब तेरा / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

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धरा दिएछि गो आमि आकाशेर पाखि
 

आकाशी पाखि मैं बंदी अब तेरा,
नयनों में तेरे नभ नया एक देखा,
पलकों में ढककर क्या रखा अरे, बोलो—
हँसती जब दिखती है वहाँ उषा-रेखा ।।
उड़ उड़ एकाकी मन वहीं चला जाए
चाहे वह आँखों के तारों के देश
बस जाए ।।
गगन वही देख हुआ विह्वल मन आज ।
फूटा उच्छवास वहीं गीत बहा जाए ।।


मूल बांगला से अनुवाद : प्रयाग शुक्ल

('गीत पंचशती' में 'प्रेम' के अन्तर्गत 53 वीं गीत-संख्या के रूप में संकलित)