आकुल मन की पीर न समझी / आनन्द बल्लभ 'अमिय'
जब जब मेरे अन्तर्मन ने, आकुल मन की पीर न समझी
तब मेरा कविता लिखना केवल कागज काला करना है।
भावों के सागर से चाहे, अनगिन गीत निकलते जाएँ।
या सजनी का पत्थर हिय भी, सुनकर गीत पिघलते जाएँ।
लेकिन छपरी के क्रंदन पर, जब मैने ही आँख फिराई
तब तब लिखे हुए शब्दों का, घावों को खारा करना है।
तब मेरा कविता लिखना केवल कागज काला करना है।
खुरपी, हँसिया और फावड़े की अनदेखी कविता कैसे?
आँसू, आहें, स्वेद, वेदना की अनदेखी कविता कैसे?
पतझर को तज नित्य बहारों की यदि मैं करता कविताई
मेरा मकसद हलधर जीवन में तब अँधियारा करना है।
तब मेरा कविता लिखना केवल कागज काला करना है।
प्रेम विरह के, मधुर मिलन की दंतकथाएँ खूब पढ़े हैं।
कवि जी तुमने मजदूरी के कितने कविता छंद गढ़े हैं।
विकट वेदनाओं से उपजे भावों की सूखी नदियाँ को
कविवर मजबूरों के जीवन की गंगा धारा करना है।
वरना कवि, कविता लिखना केवल कागज काला करना है।