भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आग जलाकर रक्खो मौसम नम ज़्यादा है / डी. एम. मिश्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आग जलाकर रक्खो मौसम नम ज़्यादा है
मुस्काने की वज़ह तलाशो ग़म ज़्यादा है

सूरज डूब चुका है फिर जाने कब निकले
उम्मीदों के दिये जलाओ तम ज़्यादा है

मेरी बस्ती के लोगों के चेहरे देखो
आँखों में हैं खुशियाँ कम मातम ज़्यादा है

घबराओ मत खुलते खुलते खुल जायेगा
बाली उम्र है शायद अभी शरम ज़्यादा है

वक्त तुम्हारे पास बहुत कम देर करो मत
मारो चोट कि लोहा अभी गरम ज़्यादा है

एक समंदर उसके आगे छोटा पड़ता
नन्हीं सी मछली है लेकिन दम ज़्यादा है