भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आग / लक्ष्मीकान्त मुकुल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बज रहा था संगीत
दुकान की बगल वाली गली से
बड़ी तीखी आवाजें
जो छू रही थी ऐतिहासिक हद की सीमाएं
रेलों का दौड़ना जारी था
कुछ इंच भर चौड़ी पटरियों के सहारे
पुल पार की झोपड़ी
छिप जाया करती थी तेज चलते हुए
वाहनों की पदचाप में डूबती हुई
निस्तेज चांद जब गुम होने लगता
अमलतास की लताओं की ओट में
आने लगती कहीं से तेज आहटें
सन्नाटे के गहरेपन को भेदती
थरथराती बूटों की भारी आवाज
कुचलने लगती खिड़कियों के पास की आवाजाही
सरसरा जाती देर शाम की सुखी हवाएं
खाली पड़े टुकड़ों में डोलती हुईं
उगी अनाम घासों की पफुनगियां
चौंक जाती बदहवास कोई आबादी
खाली पड़ने लगते सामानों से भरे रैक
सारे घर धमाकों के शोर में डूबने लगते
कोई लौट रहा होता जलते दृश्यों को देखते
अंतहीन राह में जा रही बस की पिछली सीट पर बैठ
मूंगपफलियां तोड़ते खो गये थे बच्चे
खाली होती जा रही थी संकरी गलियां
और धुएं-सा उड़ रहा था नुक्कड़ों का शहर
जंगली आग की लपटों में झुलसता हुआ।