भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आज तुम यदि पास होते / रामगोपाल 'रुद्र'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

धीरता बनते हृदय की, नयन के विश्वास होते!

रात यह काली भयावन, गूँजता झनझन् भयस्वन,
रो रहा अम्बर अकेला, रो रहे बिजली बिना घन;
क्यों बिलखते प्राण, प्राणों में बसे तुम काश होते!

साधना के अग्निपथ पर किस तरह अविचल चरण धर
चल रही मेरी जवानी, फल रहे फोले निरन्तर;
देखते अपने प्रणय का नाश से विन्‍यास होते!

यन्‍त्रणा ही राग में है, वेदना अनुराग में है,
यह न जानो, जानता था मैं नहीं, क्या भाग में है;
जानकर चलता चला हूँ, आग में अन्‍तर जुगोते!