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आज मेरे गान भी हैं मूक / रामगोपाल 'रुद्र'

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काठ-सा यह तन खड़ा है,
नयन सूने में गड़ा है,
लग रहा है, हो गई है बीन ही दोटूक!

एक दिन वह था कि उन्‍मन
नित नई छवि थी, नया मन,
नयन में मधुमास, प्र्राणों में पिकी की कूक!

एक दिन यह है कि सूना
है हिया, मरु का नमूना;
साँस लू, सब आस बालू, पास केवल हूक!

छलक पड़ती है अजाने
आज आँखें; कौन जाने,
वह तुम्हारी थी कि मेरी बरुनियों की चूक!