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आज मेरे दृग उनींदे / रामगोपाल 'रुद्र'
Kavita Kosh से
आज फिर कोई लगा ठोकर जगा वह बेकली दे!
पँखरियाँ बिखरें हृदय की, नाचकर क्षण-भर गगन में;
अधिखिले अनुराग, भीत पराग लुट जाएँ विजन में;
ओस बन ढुल जाय जो, वह स्वप्न फिर कोई छली दे!
साधना की आँख में अपलक बसा हो बिन्दु जैसे,
नीरनिधि के नयन-मन में पूर्णिमा का इन्दु जैसे,
दर्द की तस्वीर वह मकरन्द फिर कोई अली दे!
हृदय हो जिसका हिमोपल, स्मरण हो जिसका अनल-सा,
मिलन हो शीतल सुधामय, विरह हो जलते गरल-सा,
निठुर वह कोई, ज़रा फिर, पीर की भर अंजली दे!
कब खिली, कैसे खिली, किस थल खिली, जाने न कोई;
लेश भी रह जाय शेष न चिह्न, कब अनिमेष सोई;
मृत्यु पर मेरी, नहीं दो बूँद भी कहीं दे!