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आज मैं तुझे मुहब्बत का वो किस्सा सुनाता हूँ / कबीर शुक्ला

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आज तुझे मैं मेरी मुहब्बत का वह किस्सा सुनाता हूँ।
तू दो पैग और पिला मैं अहिस्ता-आहिस्ता सुनाता हूँ।

ऐ साक़ी! ये मुहब्बत है तू ज़रा दिल थामकर रखना,
किस्सा झूठा हो या सच मैं बहुत संजीदा सुनाता हूँ।

तू तो मैख़ाना ही लाकर आज मेरे प्याले में उड़ेल दे,
मैं पीता बहुत हूँ जब-जब भी वह वाक़िया सुनाता हूँ।

मेरा हाथ पकड़के रखना और ज़रा सम्भालना मुझे,
मैं लडखड़ाता भी बहुत हूँ जब वह हिस्सा सुनाता हूँ।

ये मैक़दा, बोतलें, शराबें और प्याले सब वाक़िफ़ हैं,
आज राज़े-लग्ज़िश मैं तुझे ऐ साक़िया! सुनाता हूँ।