आज हो रहा / आत्म-रति तेरे लिये / रामस्वरूप ‘सिन्दूर’
आज हो रहा क्यों तू अन्तर, इतना हाय अधीर!
कैसी तेरी पीर!
जल का केवल रूप बदल सकती है रवि की ज्वाला,
आग सजे तूफ़ान सुखा सकते है हैं तन मतवाला;
नभ छूने की शक्ति उसे इन दोनों से मिलती है,
एक दिवस मुरझाई धरती हँसती है, खिलती है;
प्यास-प्यास रट रहा किसलिये तेरे बहते नीर!
कैसी तेरी पीर!
जिन नयनों के एक सृजन को ख देता तू सपना,
उन्हीं दृगों का एक सृजन फिर नाहक़ कहता अपना;
सुख-दुःख का क्रम चलता आया औ’ चलता जायेगा,
मूक आज का दिन तो कल-का दिन नाचे-गायेगा;
आँखों से ओझल लक्ष्यों पर सीख साधना तीर!
कैसी तेरी पीर!
छाया तिमिर, न दिखता कुछ, पर दीप हाथ में तेरे,
आगे क़दम बढ़ाने भर को ठौर उजेले घेरे;
एक बढ़े डग में मंजिल बंदी, निराश क्या होना,
सूरज चाँद-सितारों की खातिर क्या रोना-धोना;
शिखा और चमकेगी जितना उत्कट बहे समीर!
कैसी तेरी पीर!