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आत्म-कथ्य / लक्ष्मीकान्त मुकुल

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किसी शाम के झुटपुटे में
चल दूंगा उस शहर की ओर
जिसे कोई नहीं जानता
दौड़ती हुई रेल के दरवाजे से
लगाऊँगा एक छलांग
और भूल जाऊँगा अपना गांव
खिड़की से झांकता हुआ कमरा
लोग खोज नहीं पाएँगे
कहीं भी मेरा अड़ान
नहीं मिलूंगा पहाड़ों की ओट में
नदी के पालने में झूलते हुए गांव की
गझिन गलियों में भी नहीं मिलूंगा
चाहे जितना भेद डालो
उड़ती हुई पतंगों से भरा-पूरा आसमान
मेरे बच्चे गिलहरियों की पूंछे थामे
मुझे खोजेंगे वन-वन रेती-रेती
बित्ते भर चौड़े नाले की तली
बबूलों से लदे दोआबे में भी खोजेंगे
जब चांद गोल बन रहा होगा
धधक रहा होगा क्षितिज का हर कोना
पक रही होंगी आमों की बौरें
मुझे खोजेंगे
श्मशान से लौटते हुए थके-हारे पांव
पहन लूंगा बाबा की मिरजई
ढूंढ लूंगा कहीं से मुरचाया हुआ बसूला
परिकथाओं से मांग लाऊँगा
वायु वेग का घोड़ा
और चल दूंगा उस अदृश्य शहर की ओर
जब सुबह-सुबह का कोहरा छंट रहा होगा।