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आदमकद मिल जाए कोई दल-दल द्वार-द्वार भटका / ऋषभ देव शर्मा

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आदमकद मिल जाए कोई, दल-दल द्वार-द्वार भटका
लोकतंत्र की इस लंका में, हर कोई बावन गज़ का

सबके हाथों में झंडे हैं, सबके माथों पर टोपी
सबके होठों पर नारे हैं, पानी उतर चुका सबका

क्रूर भेड़िये छिपकर बैठे, नानी की पोशाकों में
‘नन्हीं लाल चुन्नियों’ का दम, घुट जाने की आशंका

ठीक तिजोरी के कमरे की, दीवारों में सेंध लगी
चोरों की टोली में शामिल, कोई तो होगा घर का

 काले जादू ने मनुष्य बंदूकों में तब्दील किया
अब तो मोह छोड़ना होगा, प्राण और कायरपन का.