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आवाज़ों को सुनसानों तक ले जाने दो / डी. एम. मिश्र
Kavita Kosh से
आवाज़ों को सुनसानों तक ले जाने दो
कुछ पानी रेगिस्तानों तक ले जाने दो।
आँखों के रिश्ते काजल से आगे भी हों
ग़म के किस्से मुस्कानों तक ले जाने दो।
लड्डू-पेड़े पाषाणों पर खूब चढाते
कुछ उसमें से इन्सानों तक ले जाने दो।
वो लोकसभा, वो राजसभा क्या करती है
यह जनता के भी कानों तक ले जाने दो।
यह देश गरीबों का भी है पैसे वालो
कुछ उनके भी अरमानों तक ले जाने दो।