आहि कै कराहि कांपि कृश तन बैठी आय ,
चाहत सखी सो कहिबे को पै न कहि जाय ।
फेरि मसि भाजन मँगायो लिखिबे को कछू ,
चाहत कलम गहिबे को पै न गहि जाय ।
एते उमँगि अँसुवान को प्रवाह आयो ,
चाहत है थाह लहिबे को पै न लहि जाय ।
दहि जाय गात बात बूझे ते न कहि जाय ,
बहि जाय कागज कलम हाथ रहि जाय ।
रीतिकाल के किन्हीं अज्ञात कवि का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।