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इंसाफ़ हो सही कि ग़लत पूछते नहीं / डी. एम. मिश्र

इंसाफ़ हो सही कि ग़लत पूछते नहीं
जज के ख़िलाफ़ लफ़्ज़ एक बोलते नहीं

क्यों आँख बंद कर लें कबूतर की तरह हम
क्या आँख बंद कर लें तो महसूसते नहीं

भगवान मान ही लिया गया वो अंततः
भगवान में फिर ऐब कोई ढूँढते नहीं

कश्ती उतार दी है समंदर दोस्तो
डूबेंगे या बचेंगे ये फिर सोचते नहीं

ईमान को जो आन, बान, शान मानते
अपने ज़मीर को वो कभी बेचते नहीं

माना कि याददाश्त है कमज़ोर हमारी
एहसान मगर हम किसी का भूलते नहीं

अपने पिता की भूल से ये सीख हमने ली
कल पर कोई हम काम कभी छोड़ते नही