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इच्छाएँ / ब्रजेश कृष्ण
Kavita Kosh से
वे रहती हैं सिर्फ़ हमारे भीतर
हमसे अलग उनका
न कोई रंग होता है न कोई आकार
कभी वे गुब्बारे की तरह
तनकर हमसे बड़ी हो जाती हैं
और हमें जीने नहीं देतीं
और कभी सोई रहती हैं
बहुत गहराई में इस तरह
जैसे बीज में सोता है जीवन
मैंने सदियों पहले देखे थे
फूलों की तरह नरम और सुन्दर जूते
और खु़द को पाया था
पहली बार इच्छा के बीच
इसके पहले कि मैं सींच सकता
इस इच्छा-बीज को
मैंने देखा कि मेरे पाँव
बड़े और खुरदरे हो चुके थे
अब जब कि मैं
गुनगुना सकता हूँ इच्छा को
किसी पुरानी और
अचानक याद आई
धुन की तरह
मैं जान गया हूँ
कि इच्छा के मरते ही
कितना कुछ मर जाता है
हमारे भीतर।