भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

इज़हारेग़म शे'रों में यूं लिख कर करता हूँ / अजय अज्ञात

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 
इज़हारे ग़म शे'रों में जब लिख कर करता हूँ
कहते हैं सब मैं तो जादूमंतर करता हूँ

जबतब घर में आने वाले महमानों की मैं
ख़ादिम बन कर ख़ातिरदारी जम कर करता हूँ

शब्दों रूपी मोती की माला को चितवन से
अर्पित सब पढ़ने वालों को सादर करता हूँ

रचनाओं में जीवन के सब रंगों को भर कर
हर पन्ने पर इज़हारे दिल खुल कर करता हूँ

दुनिया चाहे कुछ भी बोले मुझ को क्या करना
जो भी करता हूँ मैं मन की सुन कर करता हूँ

सज़्दा जब भी करना होता ऊपर वाले का
बूढ़ी माँ के चरणों को मैं छू कर करता हूँ

विपदाओं के तम में निज उम्मीदों को रौशन
मंदिर की चौखट पर जा कर अक्सर करता हूँ