भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

इधर मत आना बसंत / लक्ष्मीकान्त मुकुल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इधर मत आना बसंत
घुमड़ता हुआ उठ रहा है कैसा यह धुआं
शाम की इस मनहूस घड़ी में
गांव के दक्षिणी छोर से
घिर आया है बादलों का शोर
बिजली की चौंधी चमक ने
कुचल दी है सबकी ध्ड़कनें
धमाकों की आर्तध्वनी से
थर्रा गये हैं बगीचे के ये पेड़
नहर का पानी पसरी रेत में
दुबक चुका है
केचुए, घोंघे और केकड़े-सा
मुरझा चुके हैं प्राण-प्राण बारूदी आंधी की
आंच में
दूर-दूर तक पफैली हैं
चीत्कारों के बीच चांचरों की चरचराहटें
फूस-थूनी-बल्लों से ढंकी दीवालों पर
पसर रही हैं रणवीर सेना की शैतानी हरकतें
संवेदनाओं के पर रौंदे जा रहे हैं इस कुहासे में
बेलछी, बथानी, बाथे बना यह मेरा गांव
आज लथपथ है खून के पनालों से
रायपफलों, बमों, कारतूसों की ध्ध्क में
झुलस चुका है लहलहाता हुआ पूरा टोला
लेंबे बनैले बांसों की कोर से आहत
खड़बड़ाने लगे हैं सारे घर के नरिया-खपडे़
समय पुरुवा हवा की तरह
पीठ में भाला भोंक-कर
गरज रहा है सांय-सांय, हांय-हांय!
बसंत तुम मत आना मेरे गांव में
तितलियां इधर न आना अपना पंख गंवाने
चीलों के झुंड उतरते ही
श्मशान की भांति पटी लाशों से
बिलख रहा है मेरा छोटा-सा आंगन
यह किसकी आवाजें आ रही हैं सरेह में
गेंहूं के खेतों में लगे मजूरों की
और क्यों दौड़ते आ रहे हैं कुत्तों के समूह
इध्र मत आना बसंत
तितलियां इध्र मत आओ तुम भी
प्रचंड झंझावात ने घेर लिया है
सारी धरती को!।