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इधर संवेदना गुम है / शरद कोकास
Kavita Kosh से
आदिम कबीलों का विश्वास
कर्मकांड की खाल ओढ़कर
दबे पाँव घुस गया
सभ्यता के महाजनी बाड़ों में
सभ्यता ने बचाई जान
आदिम मूल्यों को मारकर
आश्चर्य
मुझे हत्या का ख़्याल नहीं आया
ईद के रोज़
ज़िबह कर दिए गए कई जानवर
मैं दावत में शरीक था
मुझे हत्या का ख़्याल नहीं आया
ढोल-नगाड़ों की आवाज़ के बीच
ठीक मेरी नज़रों के सामने
चढ़ाई गई बलि
मुझे हत्या का ख़्याल नहीं आया
फिर जला दी गई बस्तियाँ
मार डाले गए निरपराध लोग
अफ़सोस
मुझे फिर भी
हत्या का ख़्याल नहीं आया।
-1994