भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
इन्नर बाबा दरस बरसऽ / जयराम दरवेशपुरी
Kavita Kosh से
पड़इ बूने नाहीं भइया
अइलइ बरसा के समइया
झखइ दुअरी पर मजूर
किसनमां हो भाय
जरइ जिनगी के सपरल
सपनमां हो भाय!
धिप्पल खपरी भेलइ धरतिया
जरि जुरि भंुजा भेलइ जजतिया
अगिया उगलइ हकह किरिनियाँ
जरे बदनमां हो भाय!
लहलह धिप्पल घर अँगनमा
तड़-तड़ चूअहई घाम पसेनमां
तनियो सिक न´ डोलइ कन्नउं
हाय, पवनमां हो भाय!
उखबिखाल गरमी से मनमां
मिले कनउं न´ अब तब छहुरी
में ही अकबक
छूटत परनमां हो भाय
इन्नर बाबा दरसऽ बरसऽ
सूखल धरती के तू सरसऽ
सरकाहो कुमेहर भेले
जरइ संविधनमां हो भाय!