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इन हसीनों की मोहब्बत का भरोसा क्या है / 'रशीद' रामपुरी

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इन हसीनों की मोहब्बत का भरोसा क्या है
कोई मर जाए बला से इन्हें परवा क्या है

याद आता है शब-ए-वस्ल किसी का कहना
ख़ैर है ख़ैर से इस वक़्त इरादा क्या है

वो अयादत को मिरी आएँगे ऐसे ही तो हैं
नामा-बर वाक़ई सच कहता है बकता क्या है

दुश्मन-ए-मेहर दग़ा-बाज़ सितम-ग़र क़ातिल
जानते भी हो ज़माना तुम्हें कहता क्या है

उठ गए हज़रत-ए-‘महमूद’ ज़माने से ‘रशीद’
न हो उस्ताद तो फिर लुत्फ़ ग़ज़ल का क्या है