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इस तरह तारीकियों के हल निकले जाएँगे / कुमार अनिल

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इस तरह तारीकियों के हल निकाले जायेंगे
सिर्फ अंधों के घरों में दीप बाले जायेंगे

जिसको जो भी चाहियेगा वो उसे मिल जायेगा
उससे पहले हाथ लेकिन काट डाले जायेंगे

सोचते हैं आँख के आगे हथेली को रखे
कब लकीरें साफ़ होंगी कब ये छाले जायेंगे

रंगतें तो लूट ली फूलों क़ी, उजली धूप ने
गंध को झोंके हवाओं के उड़ा ले जायेंगे

फिर बिखर जायेगा तिनको क़ी तरह सारा हुजूम
चाँद सिक्के भीड़ में अब यूं उछाले जायेंगे

काँच के महलों में रह कर आज तो खुश हो बहुत
क्या करोगे कल अगर पत्थर उछाले जायेंगे

गुमशुदा इंसानियत को ढूँढने के वास्ते
सुन रहें हैं अब समंदर भी खंगाले जायेंगे

रोटियां सूखी इन्हें दे आप शर्मिंदा न हों
इतने भूखे हैं कि ये पत्थर पचा ले जायेंगे