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इस बार हमारी कश्ती तूफां से टकरायी है / डी. एम. मिश्र
Kavita Kosh से
इस बार हमारी कश्ती तूफां से टकरायी है
यह बात हमें लहरों ने चुपके से बतलायी है
धन दौलत उसके काफ़ी, ताक़त में भी है भारी
पर अंदर से बुज़दिल है बाहर से ठकुरायी है
हिम्मत तो उसकी देखो ललकार रहा वो मुझको
ज़ालिम से गर डर जाऊँ तो जग में रुसवाई है
क़िरदार हमारा क्या है मालूम नहीं क्या उसको
छोड़ा सुख सुविधाएं औ दौलत भी ठुकराई है
मैं फूल सुकोमल हूँ पर पतझर के बाद खिला हूँ
ज़िदगी हमारी शत-शत कांटों में मुस्काई है
मौजों से मेरी यारी, पानी से भाईचारा
मैं नाविक हूं, वो समंदर ये बात समझ आयी है