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इस बेनाम मुहब्बत की चलो रुसवाई ही ले चलें / कबीर शुक्ला

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इस बेनाम मुहब्बत की चलो रुसवाई ही ले चलें।
खाली हाथ क्या लौटना चलो बेवफाई ही ले चलें।
 
सुना है मिलते नहीं कभी दरिया के दो किनारे,
अपने चाहत की निशानी चलो तन्हाई ही ले चलें।
 
अंजाम-ए-इश्क जुदा होना बगर लिक्खा हुआ है,
निभा रिवाज-ए-इश्क हम चलो जुदाई ही चलें।
 
नींद उड़े आँखों से शब गुजरे करवट बदल कर,
नशीली आँखों से कुछ चलो जम्हाई ही ले चलें।
 
इजहार-ए-इश्क का अंजाम तो बड़ा दर्दभरा है,
अपनी सुनवाई के वास्ते चलो दुहाई ही ले चलें।
 
मरीज-ए-इश्क बना दिल फिरे गलियों में तेरी,
दर्दे-दिल के वास्ते कुछ चलो दवाई ही ले चलें।
 
अब दुबारा कभी भी मुहब्बत ना होगी किसी से,
बेवफा गली से दीवाना कबीर सौदाई ही ले चलें।