इस व्योपारी को प्यास बहुत है / गिरीश चंद्र तिबाडी 'गिर्दा'
एक तरफ बर्बाद बस्तियाँ – एक तरफ हो तुम।
एक तरफ डूबती कश्तियाँ – एक तरफ हो तुम।
एक तरफ हैं सूखी नदियाँ – एक तरफ हो तुम।
एक तरफ है प्यासी दुनियाँ – एक तरफ हो तुम।
अजी वाह ! क्या बात तुम्हारी,
तुम तो पानी के व्योपारी,
खेल तुम्हारा, तुम्हीं खिलाड़ी,
बिछी हुई ये बिसात तुम्हारी,
सारा पानी चूस रहे हो,
नदी-समन्दर लूट रहे हो,
गंगा-यमुना की छाती पर
कंकड़-पत्थर कूट रहे हो,
उफ!! तुम्हारी ये खुदगर्जी,
चलेगी कब तक ये मनमर्जी,
जिस दिन डोलगी ये धरती,
सर से निकलेगी सब मस्ती,
महल-चौबारे बह जायेंगे
खाली रौखड़ रह जायेंगे
बूँद-बूँद को तरसोगे जब -
बोल व्योपारी – तब क्या होगा ?
नगद – उधारी – तब क्या होगा ??
आज भले ही मौज उड़ा लो,
नदियों को प्यासा तड़पा लो,
गंगा को कीचड़ कर डालो,
लेकिन डोलेगी जब धरती – बोल व्योपारी – तब क्या होगा ?
वर्ल्ड बैंक के टोकनधारी – तब क्या होगा ?
योजनकारी – तब क्या होगा ?
नगद-उधारी तब क्या होगा ?
एक तरफ हैं सूखी नदियाँ – एक तरफ हो तुम।
एक तरफ है प्यासी दुनियाँ – एक तरफ हो तुम।