उगता है चांद नियत समय पर / लक्ष्मीकान्त मुकुल
आज का चांद नहीं निकला आसमान में
आज तो अमावस की रात भी नहीं
पूनो की रात है कहीं बदली तो नहीं ढकी उसे
कोई तूफान, चक्रवात, सघन वृक्षों की छाया
वह दिखता था मुझे घर की खिड़की से
दमकता हुआ, अपनी आभा में छिप आता हुआ तारों को इमली के पत्तों-डहनियों के बीच झांकता हुआ
नदी की धार में झिलमिलाता हुआ
यह परीवा का चांद नहीं,
जिसे देखकर मुस्लिम लोग ईद मनाते
दूज का चांद भी नहीं, जिसे देखकर देसावर गए प्रेमियों को याद करती प्रेमिकायें
चौथ का चांद भी नहीं जिसे देखते ही कभी कृष्ण पर लगा था मणि चोरी का आरोप
पूर्णिमा का चांद निकलता है जब
अस्त हो रही हों सूरज की किरणें
हम तो उसे देखने बैठे हैं एक प्रहर पहले ही
वह उगा है अब छितिज की छोर से नियत समय पर लाल-उज्ज्वल-धवल
जैसे बारिश के बाद बिलबिला कर
उग आते हैं धरती की गर्भ में दबे अन्न के दाने