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उठ रही फिर भावना की इक लहर है / अजय अज्ञात
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उठ रही फिर भावना की इक लहर है
फिर क़लम तय कर रही अदबी सफर है
सामने आ बैठे जब से आप मेरे
रंग ख़ुशियों का मेरे कैन्वास पर है
बेसहारा छोड़ कर माँ-बाप को क्यों
बस गया परदेस में लख्ते जिगर है
दूर जिससे एक पल रहना था दूभर
एक अर्से से नहीं उसकी खबर है
इस से बढ़ कर और क्या सम्मान होगा
तालियों की गूंज मेरा ऑस्कर है
चढ़ गया ‘अज्ञात' चश्मा फिर भी मेरी
आज के हालात पर पैनी नज़र है