भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
उन्हें अब ज़ख़्म सीना आ गया है / गोविन्द गुलशन
Kavita Kosh से
उन्हें अब ज़ख़्म सीना आ गया है
हमें भी जेहर पीना आ गया है
हक़ीक़त ये है तूफ़ाँ की बदौलत
किनारे पर सफ़ीना आ गया है
मेरी आँखें मुक़द्दस हो गई हैं
इन आँखों में मदीना आ गया है
अजी ये ओस की बूंदें नहीं हैं
ये फूलों को पसीना आ गया है
हमें अब मौत से डर क्या लगेगा
हमें क़िस्तों में जीना आ गया है
किनारे पर वो देखो आस्माँ के
उजाला झीना-झीना आ गया है