भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
उसकी पेशानी पे बोसों के भरम बढ़ते रहे / 'महताब' हैदर नक़वी
Kavita Kosh से
उसकी पेशानी पे बोसों के भरम बढ़ते रहे
मेरे सीने पे इधर जंगल कोई उगता व गया
वो महब्बत भी तेरी थी, ये अदावत भी तेरी
दरमियाँ मैं था कि बस बेकार का मारा गया
उसकी आँखें, उसके लब, उसके बदन का हर ख़याल
दिन-ब-दिन इस ज़ेहन में उसका ख़लल बढ़ता गया
याद आते हैं मुझे वो शहर वो मंज़र सभी
रोशनी के रक़्स में सब कुछ मगर धुँधला गया
डूबते चेहरे, उदासी के बदन, बेरंग-ओ-नूर
ये बरस भी हिज्र का दामन बहुत फैला गया