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उसे भुलाए हुए मुझ को इक ज़माना हुआ / 'महताब' हैदर नक़वी
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उसे भुलाए हुए मुझ को इक ज़माना हुआ
के अब तमाम मेरे दर्द का फ़साना हुआ
हुआ बदन मेरा दुश्मन अदू हुई मेरी रूह
मैं किस के दाम में आया हवस-निशाना हुआ
यही चराग़ जो रौशन है बुझ भी सकता था
भला हुआ के हवाओं का सामना न हुआ
के जिस की सुब्ह महकती थी शाम रौशन थी
सुना है वो दर-ए-दौलत ग़रीब-ख़ाना हुआ
वो लोग ख़ुश हैं के वाबस्ता-ए-ज़माना हैं
मैं मुतमइन हूँ के दर उस का मुझ पे वा न हुआ