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उस कैतवके लिये कर रही / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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उस कैतव के लिये कर रही क्यों तुम सखी! बिलाप
माया-ममता-रहित, गूढ़तम जिसके कार्य-कलाप॥
निराकांक्ष, निर्भय, निज-निर्भर, निरवधि भाव-निमग्र।
परम स्वतन्त्र सदा जो सस्मित मुख मुरली-संलग्र॥
नहीं किसीके मरने-जीनेकी जिसको परवाह।
अपने मनकी ही करनेमें जिसको परमोत्साह॥
काला, कुटिल-भ्रुकुटि, कपटी अति, कुलिस-हृदय, निर्मोह।
मोहितकर, हर मन-धन सत्वर, देता बिषम विछोह॥
पुष्प-पुष्पपर मधुकर जो मँडराता नव-रस-हेतु।
भूल भरोसा करना उसका रखेगा श्रुति-सेतु॥
परम राग-रति-रहित रमण, उसका करके विश्वास।
ठगी गयी सरला तुम, रसवति, रोती अब भय-त्रास॥
प्रेमरहित वह निष्ठुर निरुपम, नहीं भरोसे जोग।
भूलो! उसे छोड़ सब आशा, क्योंकरती दुख-भोग॥