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ऊधो मानो / सुनो तथागत / कुमार रवींद्र
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ऊधो मानो
सूरज डूबा कई बार था यहीं शाम को
हम अपने ही अचरज से
मोहित थे
सपने नये लाये थे
देख न पाये
सोनल सपने वे
अंदर से जंग-खाये थे
ऊधो मानो
सुबह हुई थी इस घाटी में सिर्फ नाम को
दिन-भर
आगजनी-हत्या के खेले चले
बहुत बस्ती में
शाही खेमे के जोकर सब
डूबे रहे उसी मस्ती में
ऊधो मानो
हम हाथों में खाली पकड़े रहे ज़ाम को
नई सीकरी में देखा
हमने संतों को
चंदन घिसते
बूढ़े साधू की आँखों से
मिले लहू के आँसू रिसते
ऊधो मानो
भूल चुके हैं दिन आपस की राम-राम को