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ऊधौ! तुहरे नैन अधूरे / हनुमानप्रसाद पोद्दार
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ऊधौ ! तुहरे नैन अधूरे।
पहुँचि न पावत मो उर महँ, जहँ बसत स्याम नित रूरे॥
छिन नहिं छाँड़त उर-मंदिर कौं, समुझि परम निज धाम।
लीला करत बिचित्र बिबिध बिधि पूरित प्रेम ललाम॥
तहँ न प्रबेस करन पावत कोउ बिधि-हर-सुर-सिरमौर।
सुख-दुख, भुक्ति-मुक्ति, नहिं ग्यानाग्यान रहत तेहि ठौर॥
एक अनन्य स्याम-सुंदर कौ वह नित लीला-धाम।
दिय देस, तहँ बसौं नित्य हौं उनके सँग अभिराम॥
ऊधौ ! जदपि सखा तुम उन के, रहौ निरंतर संग।
अंतरंग पहुँचे नहिं, हरि जहँ क्री,ड़त नाना रंग॥
जौ कहुँ हरि कौ रंग-भवन मम हृदय देखि तुम पावौ।
तौ तुम रस-मद-माते ह्वै सब जोग-ग्यान बिसरावौ॥