ऊधौ! निठुर मो सम कौन / हनुमानप्रसाद पोद्दार
ऊधौ ! निठुर मो सम कौन ?
कोटि कुलिसहु तैं कठिन, तेहि छिन रह्यौ धरि मौन॥
लै चल्यौ बैठारि रथ मोहि क्रूर अति अक्रूर।
दौरि आर्ईं ब्रज-बधू सब, रहीं नैकहिं दूर।
धैर्य-मूरति राधिका, नहिं राखि पाई धीर॥
चली बिलपति करति क्रंदन, बहत दृग द्रुत नीर॥
गिरति, उठति, दहाड़ मारति, उच्च सुर बेहाल।
दौरि आवति अति उतावरि जुग-सदृस पल काल॥
उष्न अँसुअन ताप तें तरु-लता सब मुरझाय।
सूखि गइ पल माहिं, रोवत बिहग-कुल बिलखाय॥
वत्स-गो-बृष भए याकुल, रहे करुन डकार।
भए जीवन-हीन-से सब, बहि चली दृग-धार॥
लगे रोवन नेह-पूरित बन्यचर तजि धीर।
नभ घटा-घन छई असमय, बढ्यौ जमुना-नीर॥
बाँस-बन में अनल प्रगट्यौ, बही बरति बयार।
धरा-हृदय तुरंत बिदर्यौ, परी प्रचुर दरार॥
रोय दीन्ही प्रकृति सब, बुधजन बिसार्यौ बोध।
रोकि लीन्ही गोपिका गुरुजनन करि पथ-रोध॥
राधिका सब सखिन के सँग भई अति निरुपाय।
रही कातर दृगनि देखत गमन-पथ असहाय॥
हृदय-बेधी देखि यह, नहिं फट्यौ हिय हहराइ।
रह्यौ देखत हौं मृतक-सो, दियौ रथहि चलाइ॥
उतरि रथ तें हौं पलक भर दई ताहि न धीर।
कौन मो-सौ निरदई निर्मम निपट बेपीर॥
राधिका की बिकल आकृति, अकथ निज अपराध।
छिन न भूलत मोय ऊधौ ! जरत हृदय अगाध॥
देखि पावौं सकृत पद-जुग, अश्रु-जल सौं धोय।
करौं कछु हलकौ हियौ, नीरव नयन सौं रोय॥
किंतु डर यह लगत भारी, देखि रोवत मोय।
अमित हिय संताप, ताकौ अभल नहिं कछु होय॥