ऊधौ! हम क्यौं स्याम / हनुमानप्रसाद पोद्दार
ऊधौ ! हम क्यौं स्याम-बियोगिनि ?
हम तो स्याम-सुहागिनि नित ही, नित ही स्याम-सँजोगिनि॥
स्याम हमारे बाहर-भीतर रहत नित्य ही छाये।
काया में, मन में जीवन में, केवल स्याम समाये॥
रमत सदा हममें वे मोहन, हम नित उनमें रेलैं।
पै वे रमन न, नहिं हम रमनी, एक बने दो खेलैं॥
मथुरा-गमन, कंस-बध, कुबरी तें जो उनकौ नेह।
हमरे मन न अर्थ कछु इनकौ, नहिं कछु मन-संदेह॥
स्याम नित्य ही हमरे हैं, हमरे ही नित्य रहैंगे॥
बिछुरैंगे न पलक भर हम तें, बिछुरन की न कहैंगे॥
लीला करैं कितहुँ वे, कैसी लीलामय मन-मोहन।
यातें परमाह्लाद बढ़ै नित, देखि हँसी मुख सोहन॥
सब कूँ वे सुख देयँ, सबहि तें वे प्यारे सुख पावैं।
उन के मन की होय सदा, यह अति हमरे मन भावै॥
हम तें होय न बिलग कबहुँ जब, तब हम क्योंरिस मानैं।
हमरे धन कूँ भले अन्य सब अपनौ ही धन जानैं॥