भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
एक-से हों घर, अलग आकार न हो / फूलचन्द गुप्ता
Kavita Kosh से
एक-से हों घर, अलग आकार न हो ।
खिड़कियाँ तो हों, मगर दीवार न हो ।
सो सकें सब रात में बेख़ौफ़ होकर,
हो सवेरा, ख़ौफ़ का आसार न हो ।
बस्तियाँ हों, खेत हों, खलिहान हों,
कारख़ाने हों, कहीं बाज़ार न हो ।
हो मोहब्बत में भले दंदांजनी,
पर मोहब्बत का कभी व्यापार न हो ।
बन्दरों के बीच में हों बिल्लियाँ भी,
रोटियाँ इतनी हों कि तकरार न हो ।
हो मुसलसल रौशनी संसार में,
रौशनीघर के बिना संसार न हो ।
चान्द भी रौशन रहे स्वयमेव ही,
रौशनी पर सूर्य का अधिकार न हो ।