भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
एक कविता जन्म ले रही है / विमलेश त्रिपाठी
Kavita Kosh से
अभी-अभी खिला है
)तु बसन्त का एक आखिरी पलाश
मेरे बेरोजगार जीवन के
झुर्रीदार चेहरे पर
उसकी छुअन में मन्त्रों की थरथराहट
भाषा में साँसों के गुनगुने छन्द
स्मित होठों का संगीत
ध्रती के इस छोर से
उस छोर तक
लगातार हवा में तैर रहा है
मैं आश्वस्त हूँ
कि रह सकता हूँ
इस निर्मम समय में अभी
कुछ दिन और
उग आए हैं कुछ गरम शब्द
मेरी स्कूली डायरी के पीले पन्ने पर
और एक कविता जन्म ले रही है