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एक चिड़िया तार पर / यतींद्रनाथ राही

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एक चिड़िया
झूलती सी
गा रही है तार पर।

एक बादल, एक बिजली
एक चातक की चहक
बूँदियों के रस-कलश ये
देहकी मादक महक
क्षितिज पर उठती हथेली
नेह-आमंत्रण धरे
बिखरते जूड़े
हवाओं के चलन नखरों भरे
रच गया है कौन
रंगोली
सुबह के द्वार पर।
रोम पुलकित
मन विचंचल
धड़कनों में सुगबुगाहट
रक्तबाही ये शिराएँ
हो गयीं कुछ और नटखट
कुलबुलाते पंख
लगता नाप लें अंबर सभी
इन्द्रधनुषी पुल तना है
पार जाएँगे कभी
द्वार पर जब तक
धरे तुम
दीप मंगल के कलश
बैठ जाऊँ मैं कहो क्यों
यों समय से हारकर?

अब तलक जितना चला
आया तुम्हारे पास ही
खुशनुमा सबसे अधिक है
एक यह अहसास ही
एक पल पावन परस
शत कल्प जीने के लिये
ज़िन्दगी मिलती किसे
दो घूँट पीने के लिये?
एक तुम ही, जब नयन में
प्राण में हो बाँह में
शब्द मैं कितने धरूँ
इस नियति के उपहार पर।