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एक बूँद की नदी / रमेश रंजक
Kavita Kosh से
टूट गए
अनुबंधित नाम के समास
यात्रा के सुखद मोड़ से छूट गए
कितने घर, कितने जंगल
बीच में खड़े हुए पहाड़
सिर्फ़ एक बूँद की नदी
खाने को रह गई पछाड़
दृष्टि के मुहाने तक घोलकर
खटास
बाँहों के अमलतास सूख गए
छोड़ गए बेपर्दा खिड़कियाँ
दरवाज़े आलसी
बैठ गई फूहड़-सी धूल
मार पालथी
रह-रह कर फड़फड़ा रही
’तुलसी चौरे पीली प्यास’
अंग दूख गए