एक योगी सहज योग साधे हुये / आनन्द बल्लभ 'अमिय'
एक योगी सहज योग साधे हुए,
ज्ञानमुद्रा लगाकर के तल्लीन है।
तन पर बाघम्बरी ओढ़ कर, कंठ में,
नाग माला ऋचा शांति की गा रही।
शीश शशिराज हैं वेणी बाँधी जटा,
मध्य से गंग निर्मल बही जा रही।
रूप राशी सदा मंगलाचार कर,
कामना से यती सर्वदा हीन है।
भष्म तन पर मले कर पिनाकी धरे,
भस्म कर दे मलिन मन के कुविचार को।
डम डमक नाद डमरू करे व्योम में,
भर दे सृष्टि के हर रव में सुविचार को।
झोली भरते महादेव, मृड, हर, शिवम्,
पर स्वयं मोह माया परे लीन हैं।
सृष्टि में है वही उसमें ही सृष्टि है,
बह रहा है वही पाँच तत्वों में भी।
देह से आत्मा, स्नायु से रक्त में,
देव में है बसा प्रेत तत्वों में भी।
सबके भीतर वह्नि पुंज-सा जल रहा,
नित नया है वही नित्य प्राचीन है।
एक योगी सहज योग साधे हुए,
ज्ञानमुद्रा लगाकर के तल्लीन है।