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एक वस्तु है, एक बिंब है / रामगोपाल 'रुद्र'

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एक वस्तु है, एक बिम्ब है, मैं दोनों के बीच
मेरे दृग दोनों के बीच!

कितना भी मैं चितवन फेरूँ,
चाहे एक किसी को हेरूँ,
उभय बने रहते हैं दृग में
सर में पंकज-कीच!
एक रूप है, एक चित्र है, मैं दोनों के बीच
मेरे दृग दोनों के बीच!

मींच भले लूँ लोचन अपने,
दोनों बन आते हैं सपने,
मैं क्या खींचूँ, वे ही खिंचकर
लेते हैं मन खींच!
एक सत्य है, एक स्वप्न है, मैं दोनों के बीच
मेरे दृग दोनों के बीच!

प्यासा थल, जल की आशा में,
रटता है जब खग-भाषा में,
रवि-कर ही तब, घन-गागर भर,
जाते हैं बन सींच!
एक ब्रह्‍म है, एक प्रकृति है, मैं दोनों के बीच
मेरे दृग दोनों के बीच!