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एहसास के ज़ख्मों को छिपाना भी नहीं है / सिया सचदेव
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एहसास के ज़ख्मों को छिपाना भी नहीं है
आँखों से मगर अश्क़ बहाना भी नहीं है
अल्फ़ाज़ की हुरमत कहीं पामाल ना कर दे
तनक़ीद निगारों का ठिकाना भी नहीं है
हँसती हुई आँखों में छिपे दर्द को पढ़ ले
इतना तो कोई शहर में दाना भी नहीं है
बन जाए भला कैसे अभी तारिक-ए-दुनिया
दुनिया को अभी ठीक से जाना भी नहीं है
सच्चाई की ख़ातिर जो उठाते थे मुसीबत
वो लोग नहीं अब वो ज़माना भी नहीं है
हर सम्त नज़र आती है तस्वीर तुम्हारी
इस घर में कोई आईना खाना भी नहीं है
हासिल अगर होती है तू ईमान गवाँ कर
इस शर्त पे दुनिया तुझे पाना भी नहीं है