दुनिया-भर क दुख देते तुम, ऐसा दुख क्यों दिया?
सहना क्या, कहना भी दूभर,
कोई भी मरहम न सके भर,
ऐसा घाव, प्राण के भीतर जिसका मुख, क्यों दिया?
मेरे प्राणों में फूटा जो,
शीशे-सा सपना टूटा जो,
बिजली-सा घन से छूटा जो, ऐसा सुख क्यों दिया?
ललचाना ही था लोचन को,
कलपाना ही था यदि मन को,
यही विषय था, तो जीवन को वह आमुख क्यों दिया?