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ऐसे गीत कभी तुम गाओ / यतींद्रनाथ राही
Kavita Kosh से
दर्पण सदा नहीं सच होता
चहरे अपने ही भीतर हैं
गाते हो जो गीत प्यार के
क्या सच यही तुम्हारे स्वर हैं?
शिला तोड़कर बही पीर को
बह जाने दो
मत झुठलाओ!
चोले के भीतर का चोला
देखा कभी सँभाला तुमने
अँधियारे अन्तःकक्षों में
दीपक कभी उजारा तुमने?
है माया का लोक सियासत
इतना धँसो
डूब ना जाओ!
सोचा है, झाड़ी में बिलखी
शकुन्तला का सत्य कभी क्या
सन्त-महन्तो के विराट में
देखे हैं अपकृत्य कभी क्या?
महाछद्म के महारास में
कुछ तो चेतन
ज्योति जगाओ