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ओस-नहाई रात / कुंवर नारायण
Kavita Kosh से
ओस-नहाई रात
गीली सकुचती आशंक,
अपने अंग पर शशि-ज्योति की संदिग्ध चादर डाल,
देखो
आ रही है व्योमगंगा से निकल
इस ओर
झुरमुट में सँवरने को .... दबे पाँवों
कि उसको यों
अव्यवस्थित ही
कहीं आँखें न मग में घेर लें
लोलुप सितारों की ।
प्रथम बरसात का निथरा खुला आकाश,
पावस के पवन में डगमगाता
टहनियों का संयमित वीरान,
गूँजती सहसा किसी बेनींद पक्षी की कुहुक
इस सनसनी को बेधती निर्बाध,
दूर तिरते छिन्न बादल ....
स्वप्न के ज्यों मिट रहे आकार
सहसा चेतना में अधमिटे ही थम गए हों :
कामना,
कुछ व्यथा,
भावों की सुनहली उमस,
चंचल कल्पना,
यह रात और एकान्त....
छन्द की निश्चित गठन-से जब सभी सामान जुट आए
फिर भला उस याद ही ने क्या बिगाड़ा था
....कि वो न आती ?