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और... तुर्रा यह / सुनो तथागत / कुमार रवींद्र
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और... तुर्रा यह
कि आदम की सगी औलाद खुद को मानते वे
हाँ, उन्हीं की ही बदौलत
ठूँठ बरगद के तने हैं
ढही बस्ती के इलाके
ठीक उनके सामने हैं
हाथ में उनके
सुनहरी छतरियां हैं - जिन्हें जब-तब तानते वे
कल गिरी मस्जिद
वहाँ बनवा रहे हैं नया मंदिर
नई दुनिया के मसीहे
वही तो हैं, भाई, आखिर
कहाँ बच्चे
रात सोये बिना-खाए, यह नहीं ,हाँ, जानते वे
दूर सागर-पार के
उजले शहर का ज़िक्र करते
उन्हें क्या मालूम
अंधी गली से हैं दिन गुज़रते
आप क्या हैं
सगे अपने भाई तक को हैं नहीं पहचानते वे