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और कब तक चुप रहें (ग़ज़ल) / कुमार अनिल

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ज़ुल्म है अब हद से बाहर, और कब तक चुप रहें
सामने है ख़ूनी मंज़र , और कब तक चुप रहें

रोक ली महलों ने जब ताज़ा हवा भी, धूप भी
हाथ में तब लेके पत्थर, और कब तक चुप रहें

तोड़ कर साहिल के बंधन हो गई पाग़ल नदी
अश्क आँखों में छिपाकर और कब तक चुप रहें

ज़ब्त की भी कोई आख़िर इंतिहा तो है ज़रूर,
होंठ दाँतों में दबाकर और कब तक चुप रहें

बाँटने निकला था सबको चिट्ठियाँ जो अम्न की
जाल में है वो कबूतर और कब तक चुप रहें

तोड़कर बंधन गले के, फाड़कर सीने के जोड़
चीख़ अब निकलेगी बाहर, और कब तक चुप रहें

पहले घायल जिस्म था, अब रूह भी ज़ख़्मी हुई
फिर बता तू ही सितमगर, और कब तक चुप रहें

घर लुटा कर, दिल जलाकर, छोड़कर अपनी अना
चुप रहें हैं हम तो अक्सर, और कब तक चुप रहें